रविवार, 30 अगस्त 2009

बारहसिंगा ANTELOPE




पाँचवें साल की शरद ऋतु में मेरी भेंट हुई बारहसिंगे से
होडाका पर्वतमालाओं के घने भीतर गरम पानी के झरने पर
निश्शब्द निकट चला आया बारहसिंगा
भाँप के बीच से उसने देखा मेरा नग्न शरीर
मैं भी ताकती रह गई उसे
समूह से भटका बारहसिंगा
और मैं थी वहाँ अपनी मर्ज़ी से
अँजुरी में भर कर झरने का गरम जल
मैंने फेंक दिया उस बारहसिंगे पर
भाषा के अभाव में यही था अभिवादन लेकिन
कुछ चौंक-सा गया बारहसिंगा
जब मैंने देखी बारहसींगे की रोंयेदार छाती - गरम पानी से गीली
मुझे लगा ज़रूर पिंघला होगा उसका एकाकीपन
हवा बही हमारे बीच
हिले पेड़ों पर पत्ते
अन्तत: चुपचाप पीछे घूमा बारहसिंगा और
ख़ामोश उछलते हुए लौट गया पर्वतों में
सपनों में वही झरना है
नीम रात में धीरे से गरम पानी में रखती हूँ पाँव की उंगलियाँ
धारा के विपरीत मैं सुन सकती हूँ धीमे पदचाप
वही बारहसिंगा
लौटता है हर बार
नहीं देखता अपनी ब्रह्माण्ड - सी विराट आँखों से कहीं भी
उसकी रोंयेदार छाती से पानी की बूँदे
गिरती हैं - टप टप .

2 टिप्‍पणियां:

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

राजेश्‍वर जी बहुत ही गहरी बात छिपी हैं इस कविता में बेहतरीन आज पहली बार आपके ब्‍लाग पर आया हूं अब आना लगा रहेगा

Unknown ने कहा…

Really these is true. You know your poem is really heart touching. I shared this poem in Car towing service site. I shared my every poem in this site.