गुरुवार, 17 सितंबर 2009

स्नानागार


देर रात्रि में नि:शब्द है डाइकोकूया स्नानागार
बेहद थकी एक नग्न बूढ़ी औरत
छुड़ा नहीं पा रही है मैल
खटर-पटर कर रहा है दरवाज़ा
टूंटी खुलने पर फव्वारे के छिद्रों से झर-झर की
आवाज़ के साथ निकलता है पानी
आसमान की उजास के साथ चुपचाप नंगे पांव
अन्दर चल आती है रात की ठंडक
तेज़ी से बहता है पानी
स्नानागार के किनारों पर से बिखरते हुए
मैं
एक ठूंठ-सा
नहीं देता कोई निर्णय…..
मैं देखता हूं स्त्री-शरीरों को
मैंने देखा है
उनके शरीरों पर
सिर के बालों से झरता हुआ
नंगी पीठों, नितम्बों और गुप्तांगों से हो कर बिखरता पानी
कितने खोखल हैं स्त्री शरीर में
जिनमें ठहर जाता है जल
झर-ने के लिए
मुझे लगता है मैं यह सब देख रहा हूं
वर्षों से - बार-बार, फिर-फिर
मैं देख सकता हूं स्त्रियों और पुरुषों के स्नानागारों को
अलग करने वाली दीवार को भी
अपने तरीके से तसल्ली करता हूं
जंगली जानवर की तरह
कोई भी न घुसे एक-दूसरे के स्नानागार में
मैं प्रसन्न भी हूं और चकित भी……