पाँचवें साल की शरद ऋतु में मेरी भेंट हुई बारहसिंगे से
होडाका पर्वतमालाओं के घने भीतर गरम पानी के झरने पर
निश्शब्द निकट चला आया बारहसिंगा
भाँप के बीच से उसने देखा मेरा नग्न शरीर
मैं भी ताकती रह गई उसे
समूह से भटका बारहसिंगा
और मैं थी वहाँ अपनी मर्ज़ी से
अँजुरी में भर कर झरने का गरम जल
मैंने फेंक दिया उस बारहसिंगे पर
भाषा के अभाव में यही था अभिवादन लेकिन
कुछ चौंक-सा गया बारहसिंगा
जब मैंने देखी बारहसींगे की रोंयेदार छाती - गरम पानी से गीली
मुझे लगा ज़रूर पिंघला होगा उसका एकाकीपन
हवा बही हमारे बीच
हिले पेड़ों पर पत्ते
अन्तत: चुपचाप पीछे घूमा बारहसिंगा और
ख़ामोश उछलते हुए लौट गया पर्वतों में
सपनों में वही झरना है
नीम रात में धीरे से गरम पानी में रखती हूँ पाँव की उंगलियाँ
धारा के विपरीत मैं सुन सकती हूँ धीमे पदचाप
वही बारहसिंगा
लौटता है हर बार
नहीं देखता अपनी ब्रह्माण्ड - सी विराट आँखों से कहीं भी
उसकी रोंयेदार छाती से पानी की बूँदे
गिरती हैं - टप टप .
हिन्दी बहुत उदार और प्रगतिशील भाषा है । विश्व की प्राय: सभी महत्वपूर्ण भाषाओँ से अनुदित हो कर कविताएँ हिन्दी में आती रही हैं। पाठकों ने उन्हें सराहा और स्वीकार भी किया है। कुछ वर्ष पूर्व मैंने कनाडा की कविताओं का अनुवाद किया था जो निरंतर कविता पत्रिका काव्यम में छपा और बाद में - कवितादेशांतर -कनाडा - के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुआ । इन दिनों जापान की कविता को समझने का प्रयास कर रहा हूँ और इसका ही परिणाम है आधुनिक जापानी कवियित्री मसायो कोइके की कुछ कवितायेँ । हिन्दी अनुवाद में लीथमार्टिन(LEITH MORTON) के अंग्रेजी अनुवाद से सहायता ली गयी है । इन कविताओं का प्रकाशन मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार के फरवरी, 2009 के अंक (350) में हुआ है।