गुरुवार, 17 सितंबर 2009

स्नानागार


देर रात्रि में नि:शब्द है डाइकोकूया स्नानागार
बेहद थकी एक नग्न बूढ़ी औरत
छुड़ा नहीं पा रही है मैल
खटर-पटर कर रहा है दरवाज़ा
टूंटी खुलने पर फव्वारे के छिद्रों से झर-झर की
आवाज़ के साथ निकलता है पानी
आसमान की उजास के साथ चुपचाप नंगे पांव
अन्दर चल आती है रात की ठंडक
तेज़ी से बहता है पानी
स्नानागार के किनारों पर से बिखरते हुए
मैं
एक ठूंठ-सा
नहीं देता कोई निर्णय…..
मैं देखता हूं स्त्री-शरीरों को
मैंने देखा है
उनके शरीरों पर
सिर के बालों से झरता हुआ
नंगी पीठों, नितम्बों और गुप्तांगों से हो कर बिखरता पानी
कितने खोखल हैं स्त्री शरीर में
जिनमें ठहर जाता है जल
झर-ने के लिए
मुझे लगता है मैं यह सब देख रहा हूं
वर्षों से - बार-बार, फिर-फिर
मैं देख सकता हूं स्त्रियों और पुरुषों के स्नानागारों को
अलग करने वाली दीवार को भी
अपने तरीके से तसल्ली करता हूं
जंगली जानवर की तरह
कोई भी न घुसे एक-दूसरे के स्नानागार में
मैं प्रसन्न भी हूं और चकित भी……

रविवार, 30 अगस्त 2009

बारहसिंगा ANTELOPE




पाँचवें साल की शरद ऋतु में मेरी भेंट हुई बारहसिंगे से
होडाका पर्वतमालाओं के घने भीतर गरम पानी के झरने पर
निश्शब्द निकट चला आया बारहसिंगा
भाँप के बीच से उसने देखा मेरा नग्न शरीर
मैं भी ताकती रह गई उसे
समूह से भटका बारहसिंगा
और मैं थी वहाँ अपनी मर्ज़ी से
अँजुरी में भर कर झरने का गरम जल
मैंने फेंक दिया उस बारहसिंगे पर
भाषा के अभाव में यही था अभिवादन लेकिन
कुछ चौंक-सा गया बारहसिंगा
जब मैंने देखी बारहसींगे की रोंयेदार छाती - गरम पानी से गीली
मुझे लगा ज़रूर पिंघला होगा उसका एकाकीपन
हवा बही हमारे बीच
हिले पेड़ों पर पत्ते
अन्तत: चुपचाप पीछे घूमा बारहसिंगा और
ख़ामोश उछलते हुए लौट गया पर्वतों में
सपनों में वही झरना है
नीम रात में धीरे से गरम पानी में रखती हूँ पाँव की उंगलियाँ
धारा के विपरीत मैं सुन सकती हूँ धीमे पदचाप
वही बारहसिंगा
लौटता है हर बार
नहीं देखता अपनी ब्रह्माण्ड - सी विराट आँखों से कहीं भी
उसकी रोंयेदार छाती से पानी की बूँदे
गिरती हैं - टप टप .

शनिवार, 4 जुलाई 2009

जापान की समसामयिक कविता

हिन्दी बहुत उदार और प्रगतिशील भाषा है । विश्व की प्राय: सभी महत्वपूर्ण भाषाओँ से अनुदित हो कर कविताएँ हिन्दी में आती रही हैं। पाठकों ने उन्हें सराहा और स्वीकार भी किया है। कुछ वर्ष पूर्व मैंने कनाडा की कविताओं का अनुवाद किया था जो निरंतर कविता पत्रिका काव्यम में छपा और बाद में - कविता देशांतर -कनाडा - के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित भी हुआ ।
इन दिनों जापान की कविता को समझने का प्रयास कर रहा हूँ और इसका ही परिणाम है आधुनिक जापानी कवियित्री मसायो कोइके की  कुछ कवितायेँ । हिन्दी अनुवाद में लीथ मार्टिन(LEITH MORTON) के अंग्रेजी अनुवाद से सहायता ली गयी है । इन कविताओं का प्रकाशन मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार के फरवरी, 2009 के अंक (350) में हुआ है।

प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ -


 


भोर : एक छोटी कविता

A SHORT POEM ABOUT DAY BREAK

अमेरिका -
सान्ता फ़े के एक शौचालय में
भोर हो रही है
लघुशंका निमग्न थी मैं बहुत लम्बे समय से
मुझे लगा समूचे विश्व में
बस मैं और अकेली यही एक ध्वनि है
मैं जानती थी - मैं ही कर रही हूं यह शोर
हो रही थी एक विचित्र-सी अनुभूति
कि कहीं बाहर से आ रही है यह आवाज़
कुछ आश्वस्त सी मैं प्रतीक्षा कर रही थी इसके अंत की
पर यह कब खत्म होती है
बूढ़ी औरत की अन्तहीन कहानी-सी
समय जो बिल्कुल निरपेक्ष है कहीं भी
मैं नहीं थी यहां
मैं तो कह सकती हूं यहां तक
मैं नहीं हूं जीवित भी
इस समय बन्द हो गई है आवाज़

 
इस कमरे में जो तेज़ी से हो रहा है ठंडा
नि:शब्द आत्मा ने की है एक रचना
क्या यह मैं ही हूंमैं ?
जीवन का तापमान पीछे रह गया है अदृश्य
गोले के आकार में
क्या तुम वहां उस कमरे में थे?
मैं थी, मैं जीवित हूं
उस समय से भी पहले जब सवाल पूछने वाली आवाज़
पहुंच पाई थी मुझ तक